मानव की जन्म
कुंडली में जब ग्रहो का एकीकरण किसी स्थान
में होता है | तब इस प्रकर की स्थिति को योग कहा जाता है | जन्म पत्रिका में योगो का बहुत ही महत्व होता है |
जब किसी मनुष्य की जन्म कुंडली में राहू और केतू दोनों ग्रह एक ओर हो, और शेष ग्रह दूसरी ओर स्थित हो तब इस प्रकर की गृह स्थिति को कालसर्प योग के नाम से जाना
जाता है | न कि कालसर्प दोष के नाम से जाना जाता है | विद्वानो ने कुंडली में लगभग 300
प्रकार के योगो का वर्णन किया है | जिन में से एक कालसर्प योग के नाम से भी प्रचलित है तथा कालसर्प योग एक
भयानक योग है |
सूर्य के दोनों ओर गृह रहने पर '' वली"
" वसी" और "उभयचरी" योग बनता है |
चंद्रमा के दोनों ओर गृह होने पर " अनफा "सुनफा "दुर्दरहा और
केंद्रुम योग बनता है | शनि के साथ चंद्रमा हो तो विष योग
बनता है तथा चंद्रमा के साथ यदि राहू हो तो ग्रहण योग बनता है | राहू गुरु के साथ हो तो चांडाल योग बनता है | इसी
प्रकर जब सभी ग्रह राहू - केतू के इर्द -
गिर्द हो तो ज़ो योग बनता है उसको कालसर्प योग कहा जाता है |
का वर्णन किया है | श्री कल्याण वर्मा के द्वारा रचित "सारावली" में कालसर्प योग का वर्णन देखने को मिलता है |
श्री वराहमिहिर
द्वारा रचिता " जातक नम संयोग" में "कालसर्प योग" का वर्णन
देखने को मिलता है| यही नहीं जैन ऋषि द्वारा भी अनेक जैन ज्योतिष ग्रंथो में
"कालसर्प योग " की विख्या है| उनके मतानुसार सूर्य ग्रहण अथवा
चन्द्र ग्रहण के समय ज़ो स्थिति होती है वही स्थिति कालसर्प योग के कारण जातक के जनामंग में होती है| वास्तव में राहू और केतू छाया गृह है तथा उनकी अपनी कोई द्रष्टि नहीं
होती | राहू व केतू के फलित ज़ो देखने को मिलते है, उनको राहू व केतू के
देवतायो के नक्षत्र को जोड़कर "
कालसर्प योग " कहा जाता है | राहू के गुण शनि जैसे व
केतू के गुण मंगल गृह की भाति होते है | राहू की युति किस
गृह के साथ है, वह किस स्थान का आधिपति है, यह भी देखना अनिवारीय है | राहू मिथुन राशि में उच्च का तथा
अपने सप्तम स्थान अतार्थ धनु राशि में नीच
को होता है तथा कन्या राशि में स्वग्रही कहलाता है |
Good Information !!
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